पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/१४

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पहला अङ्क―पहला दृश्य

के यादवो की यह कन्या सरमा किसो के सिर का बोझ और अकर्मण्यता की मूर्ति होकर नहीं आई है। इस वक्षस्थल मे अवलाओं का रुदन ही नहीं भरा है।

मनसा―हाँ सरमा, मुझ मे भी ओजपूर्ण नाग-रक्त है। इस मस्तिष्क में अभी तक राजेश्वरी होने की कल्पना खुमारो को तरह भरी हुई है। वह अतीत का इतिहास याद करो, जब सरस्वती का जल पीकर स्वस्य और पुष्ट नाग जाति कुरुक्षेत्र की सुंदर भूमि का स्वामित्व करती थो! जब भारत जाति के क्षत्रियो ने उन्हे हटने को विवश किया, तब वे खाण्डव-वन में अपना उप- निवेश बना कर रहने लगे थे। उस समय तुम्हारे कृष्ण ने साम्य और विश्व-मैत्री का जो मन्त्र पढ़ा था, क्या उसे तुम सुनोगी? और जो नृशंसता आर्यों ने की थी, उसे आँखो से देखोगी? लो, देखो मेरा मन्त्रवल, प्रदोप की गाढ़ा नीलिमा में अपनी आँखें गडा दो। सावधान।

[कुछ पढ़ती हुई क्षितिज की ओर अपना दाहिना हाथ फैलाती है; और उसके तमिस्र पटल पर खाण्डव की सीमा प्रकट होती है। अर्जुन और श्रीकृष्ण आते है।]

अर्जुन―भयानक जन्तुओ से पूर्ण यह खाण्डव वन देकर उन लोगो ने हमे अच्छा मूर्ख बनाया! क्या हम लोग भी जंगली है जो वृक्षो के पत्ते पहन कर इन भयानक जन्तुओं के साथ इसी मे निवास करेंगे? सखे कृष्ण! यह कपटपूर्ण व्यवहार असह्य है।

श्रीकृष्ण―अर्जुन! इस पृथ्वी पर कहीं कहीं अब तक मनुष्यों