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जनमेजय का नाग-यज्ञ


मनसा––क्या कहूँ, जिसकी तू इतनी प्रशंसा कर रही है, उसी ने इस जाति का अधःपात किया है। और नहीं तो क्या प्रबल नाग जाति वीर्य या शौर्य में आर्यों से कम थी? जब नागों ने आभीरों के साथ मिलकर यादवियों का हरण किया था, तब धनञ्जय की वीरता भी विचलित हो गई थी!

सरमा––(बिगड़कर) बहन, वह प्रसंग न छेड़ो! उसे रहने दो! वह आर्यों के लिये लज्जाजनक अवश्य है, किन्तु उनकी वीरता पर कलङ्क नहीं है। क्या मैं ही तुम्हारे भाई पर मुग्ध होकर अपनी इच्छा से नहीं चली आई? क्या और भी अनेक यादवियाँ अपने चरित्र-पतन की पराकाष्ठा दिखला कर उन आक्रमणकारियों के साथ नहीं चली गईं? उसमें कुछ नागों की वीरता न थी। जिनकी रक्षा करनी थी, स्वयं वे ही जब लुटेरों को आत्मसमर्पण कर रही थीं, तब अर्जुन की वीरता क्या करती?

मनसा––जब उनमें कोई बात ही न थी, तब फिर वे क्यों आईं?

सरमा––मनसा, मैं व्यंग्य सुनने नही आई हूँ! श्रीकृष्ण ने पददलितों की जिस स्वतन्त्रता और उन्नति का उपदेश दिया था, वह आसुरी भावों से भरकर उद्दाम वासना में परिणत हो गई। धर्म-संस्थापक ने जातीय पतन का वह भीषण आन्तरिक सग्राम भी अपनी आँखों देखा; किन्तु इस ओद्धत्य को रुकते न देखकर उन्हें प्रकृति के चक्र में पिस जाने दिया। यदि वे चाहते, तो यादवों का नाश न होता। किन्तु हाँ, उसका परिणाम अन्य जातियों के लिये भयानक होता। और, मनसा, यह समझ रखना कि कुक्कुर वंश