जनमेजय―भगवन्! मेरा अपराध क्या है, यह तो मुझे विदित हो जाय।
व्यास―इस षड्यन्त्र का मूल काश्यप उपयुक्त दण्ड पा चुका। यज्ञशाला के विप्लव में से भागते समय किसी नाग ने उसकी हत्या कर डाली। सम्राट्, इन ब्राह्मणो ने तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया है। इनकी क्षमा शीलता तो देखो। तुमने अका- रण इन्हें निर्वासन की आज्ञा दी; पर फिर भी इन्होंने शाप तक न दिया। तपस्वी ब्राह्मणो, तुम लोग धन्य हो। तुमने ब्राह्मणत्व का बहुत ही सुन्दर उदाहरण दिखलाया है।
जनमेजय―भगवान् की जैसी आज्ञा। (सब ब्राह्मणों से) आप लोग मुझे क्षमा कीजिए।
शौनक―सम्राट्, तुम सदैव क्षम्य हो; क्योकि तुम्हारे सुशा- सन से हम आरण्यक लोग शान्तिपूर्वक अपना स्वाध्याय करते है। क्या तुम्हारा एक भी अपराध हम सहन नहीं कर सकते? सहनशाल होना ही तो तपोधन और उत्तम ब्राह्मण का लक्षण है। किन्तु मानूँगा, व्यासदेव, तुम्हारी ज्ञान गरिमा को, तुम्हारी वृत्ति को, तुम्हारी शान्ति को मानूँँगा। आज तक अवश्य कुछ ब्राह्मण तुम्हे दूसरी दृष्टि से देखते थे; किन्तु नही, तुम सर्वथा स्तुत्य और वन्दनीय हो। तुम्हारा अगाध पाण्डित्य ब्राह्मणत्व के योग्य ही है।
व्यास―साम्राट्, तुमने मुझसे एक दिन पूछा था कि क्या भविष्य है। देखा नियति का चक्र! यह ब्रह्म चक्र आप ही अपना कार्य करता रहता है। मैंने कहा था कि यज्ञ में विघ्न होगा।