उत्तङ्क―समझ गया। यह मेरा दम्भ था। मैं भी क्या स्वप्न देख रहा था!
जनमेजय―(अनुचरो से) इन अभिनयो से काम न चलेगा। जलाओ दुष्ट तक्षक को।
[अनुचर तचक वासुकि आदि को जलाना चाहते हैं। इतने में व्यास के साथ सरमा, मनसा, माणवक और आस्तीक को प्रवेश।]
व्यास―ठहरो! ठहरो!
जनमेजय―भगवन् , यह पारीक्षित जनमेजय आपके चरणो मे प्रणाम करता है।
आस्तीक―मेरा प्रतिफल! मेरा न्याय!
जनमेजय―तुम कौन हो?
आस्तीक―जिस ब्रह्महत्या का प्रायश्चित करने के लिये तुमने अश्वमेध किया है, मैं उसो ब्रह्माहत्या की क्षति पूर्ति चाहता हूँ। मैं उन्ही जरत्कारु ऋषि का पुत्र हूँ, जिनकी तुमने बाण चलाकर हत्या की थी।
जनमेजय―आश्चर्य! कुमार! तुम्हारा मुखमण्डल तो बड़ा सरल है; फिर भी वह क्या कह रहा है! मैं किस लोक में हूँ!
व्यास―सम्राट्, तुम्हे न्याय करना होगा। यह बालक अपने पिता की हत्या को क्षति पूर्ति चाहता है। आर्य न्यायाधिकरण के समक्ष यह बालक तुम पर अभियोग न लगाकर केवल क्षति पूर्ति चाहता है। क्या तुम इसे भी अस्वीकृत करोगे?