यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
जनमेजय का नाग-यज्ञ
[उत्तङ्क अग्नि में घी डालता हैं। अनुचर नागों को लाकर उसमें डालते हैं। क्रन्दन और हाहाकार होता है।]
तक्षक―क्षत्रिय सम्राट्! क्रूरता में तुम किसी से कम नहीं हो।
जनमेजय―यही तो मै तुम से कहलना चाहता था। अब तुम्हारी बारी है।
[वेद और दामिनी का प्रवेश]
वेद―आयुष्मन् उत्तङ्क!
उत्तङ्क―गुरुदेव, प्रणाम।
वेद―उत्तङ्क, उत्तेजित होकर प्रतिक्रिया करने की भी कोई सीमा होती है।
उत्तङ्क― भगवन्, यह तो मेरा कर्तव्य है। कृपया इसमें बाधा न दीजिए।
दामिनी―उत्तङ्क! हृदय के अतिवाद से वशीभूत होने का मुझसे बढ़कर और कोई उदाहरण न मिलेगा। तुम कुछ मस्तिष्क से काम लो।
उत्तङ्क―तुम मेरी गुरुपत्नी! आश्चर्य!
दामिनी―उत्तङ्क,मै क्षमा चाहती हूँ। आर्यपुत्र ने मुझे क्षमा कर दिया है। तुम भी अब पिछली बातें भूल जाओ और क्षमा कर दो।
उत्तङ्क―गुरुदेव समर्थ है; पर मुझ में हृदय है।
दामिनी―हृदय है! तब तो तुम उसकी दुर्बलता से और भी भलीभाँति परिचित होगे!