सोमश्रवा―जब सब ब्राह्मण निर्वासित है, तब मैं ही क्यो यहाँ रहूँगा! और शास्त्र के विरुद्ध कोई नया नियम बनाने की मुझ मे सामर्थ्य नहीं है। नर बलि का यह घातक कार्य्य मुझ से न हो सकेगा!
उत्तङ्क―सोमश्रवा, बलि से आज हिचकते हो?
जनमेजय―तक्षक ने आज तक इस राजकुल के साथ जितने दुर्व्यवहार किए हैं, उनका स्मरण होगा मन्त्र; और उसके सामने उसके कुटुम्ब की आहुतियाँ होगी।
उत्तङ्क―और पूर्णाहुति मे तक्षक।
जनमेजय―ठीक है, ब्रह्मचारी।
शीला―बहन मणिमाला, मैं तुम्हारे साथ हूँ। यदि तुम्हें जलावेंगे, तो मै भी तुम्हारे साथ जलूँँगी।
सोमश्रवा―अच्छा होगा। ब्राह्मण निर्वासित और ब्राह्मणी की आहुति! सम्राट्! विचार से काम कोजिए। ऐसा न हो कि दण्डनीय के साथ निरपराध भी पिस जाएँ।
जनमेजय―उत्तङ्क, कुछ मत सुनो! घृत डालकर वह्नि प्रज्वलित करो। (अनुचरो से ए) क एक करके नागों को इसी मे डालो। आज मैं क्षत्रियो के उपयुक्त ऐसा यज्ञ करूँगा, जैसा आज तक किसी ने न किया होगा और न कोई कर सकेगा। इस नाग-यज्ञ से अश्वमेघों का अन्त होगा। विलम्ब न करो। जिसको जाना हो, चला जाय।