देना चाहती हो! पर अब यह बात नहीं होने की! मरण के डर से मैं कलङ्कित जीवन बचाने का दुस्साहस न करूँगा।
मनसा―भाई, तुम्हारी मनसा तुमसे क्षमा चाहती है। जाति- नाश कराने का कलङ्क उसके सिर पर न लगने दो।
वासुकि―अब कोई उपाय नहीं है।
मनसा―(कुछ सोच कर) अच्छा, तुम अवशिष्ट सैनिको को साथ लेकर चलो। मैं भी चलती हूँ। यदि सन्धि करा सकी, तब तो ठीक ही है; नहीं तो हम सब लोग जल मरेंगे?
वासुकि―(हँस कर) अभी इतनी आशा है?
मनसा―एक बार आर्यो के महर्षि बादरायण के पास जाऊँगी। सुना है; उनकी महिमा अपूर्व है। सम्भव है, उनसे मिलकर कुछ काम कर सकूँ।
नाग―अच्छी बात है। एक बार और चेष्टा कर देखिए। हम लोग पूर्णाहुति के लिये प्रस्तुत होकर चलते हैं। किन्तु स्मरण रहे, जिस स्वतन्त्रता के लिये इतना रक्त बहाया गया है, वह स्वतन्त्रता हाथ से जाने न पावे।
मनसा―विश्वास रखो, मनसा कभी अपमानजनक सन्धि का प्रस्ताव न करेगी। नागबाला को भी मरना आता है।
सब नाग―जय, नागमाता की जय!