व्यास―ब्रह्म चक्र के प्रवर्तन मे कैसी कठोर कमनीयता है! वत्स आस्तीक, मैंने तुमसे जो कहा था, उसे मत भूलना।
आस्तीक―भगवन्! मैं मातृ द्रोही हो गया हूँ। मैने माता की आज्ञा नहीं मानी। मेरे सिर पर यह एक भारी अपराध है।
व्यास―वत्स, सत्य महान् धर्म है। इतर धर्म क्षुद्र है, और उसी के अङ्ग हैं। वह तप से भी उच्च है, क्योकि वह दम्भ विहीन है। वह शुद्ध बुद्धि की आकाशवाणी है। वह अन्तरात्मा को सत्ता है। उसको दृढ़ कर लेने पर ही अन्य सब धर्म आचरित होते है। यदि उससे तुम्हारा पद स्खलन नहीं हुआ, तो तुम देखोगे कि तुम्हारी माता स्वयं तुम्हारा अपराध क्षमा और अपना अपराध स्वीकृत करेगी। क्योकि अन्त मे वही विजयी होता है, जो सत्य को परम ध्येय समझता है।
माणवक―भगवन्, यह बात सर्वत्र तो नहीं घटित होती! क्या इसमे अपवाद नहीं होता? यदि सत्य का फल श्रेय ही होता, यदि पाप करने से लोग प्रत्यक्ष नरक की ज्वाला मे जलते, यदि पुण्य करते हुए जीवन को सुखमय बना सकते, तो क्या संसार मे कभी इतना अत्याचार हो सकता था?