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जनमेजय का नाग-यज्ञ

हो जाता है। वेश भूषा के नियमो मे उलझकर अस्त व्यस्त हो जाना पड़ता है।

दामिनी―बहन, तुमने तो यह बड़ी भारी वक्तृता दे डाली। तो फिर क्या संसार में इनका प्रयोग व्यर्थ है?

शीला―मेरी सम्मति तो यह है कि सरलता, हृदय की पवित्रता, स्वच्छता और अपनी प्रसन्नता के लिए उतना ही स्त्री जन सुलभ सहज शृङ्गार पर्याप्त है, जो स्वतन्त्रता में बाधा न डालता हो, जो दूसरे का मनोरमण करने के लिए न हो। कुटिलो का लक्ष्य बनने के लिये कठपुतली की तरह सजना व्यर्थ ही नहीं, किन्तु पाप भी है।

दामिनी―लो, यह व्यवस्था भी हो गई, किन्तु मै तो इसे नही मानने की।

शोला–देखो, इसी कारण मणि कुण्डलो के लिये, अपने पति के सामने तुम्हे कितना लज्जित होना पड़ा था; और कितना बड़ा अनर्थ तुमने उपस्थित कर दिया था!

दामिनी―(सिर नीचा करके) हाँ बहन, यहाँ तो मुझे हार माननी ही पड़ी! अच्छा, लो चलो।

[ दोनों जाती हैं ]
 


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