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(९४) जगद्विनोद । फुरै न कछु उद्योग जहँ, उपजै अतिही शोच ॥ ताहिविषादबखानहीं, जैकविसदाअपोच ॥ ३३ अथ विषाद वर्णन ॥ कवित्त-शोच न हमारे कछू त्याग मनमोहनके, तनको न शोच जोपै योंही जरेजाइहैं। कहै पदमाकर न शोच अब एहूँ यह, आइहैतो आनिहै न आइहै न आइहै ॥ योगको न शोच और भोगको न शोच कछु, यही बड़ो शोच सोतो सबनि सुहाइहै । कूबरीके कूबरमें बेभ्योहै त्रिभंगता, त्रिभंगको त्रिभंगी लागे कैसे मुरझाइहै ॥ ३४ ॥ पुनर्यथा ॥ कवित्त-कैनंग हाल नन्दलाल और गुलाल दोउ, दृगनि गये जु भरि आनंद मरे नहीं । धाय धाय हारी पदमाकर तिहारी सौंह, अब तो उपाय एक चित्तमें चढ़ नहीं । कैसीकरों कहां जाऊँ कासों कहौं कौनमुने, कोऊ तो निकासो जासे दरदबढ़े नहीं । येरी मेरी वीर जैसे तैसे इन आँखिन ते, फडिगो अबीर पै अहीर को कहै नहीं ।। ३५॥