(९०) जगद्विनोद । अथ निवेद-सवैया ॥ यों मन लालची लालचमें लगिलोभतरंगनमें अवगाह्यो। त्यों पदमाकर देहके गेहके नेहके काजन फाहि सराह्यो । पापकियेपै नपातीपावन जानिकै रामको प्रेम निबाह्यो । चाह्यो भयो न कछू कबहूं यमराजहूँ सोवृथावैर विसाह्यो । दोहा--भयो न कोऊ होइगो, मो समान मतिमन्द । तजे न अबलौं विषयविष, भजे न दशरथनन्द।। भूखहिते कि पियासते, कैरति श्रमते अङ्ग । विह्वल होत लगानिसों,कम्पादिक स्वरभंग॥ १३ ॥ अथ ग्लानिका उदाहरण--सवैया ।। आजु लखी मृगनैनी मनोहर बेणी छुटीछहरै लबिछाई । टूटे हरा हियरा पै परै पदमाकर लोकसी लंकलुनाई ॥ कै रतिकेलिसकेलिसुखैकलिकेलिके भोनतेबाहिर आई। राजि रही रति आँखिनमें मनमें धौंकहातनमेंशिथिलाई ।। दोहा--शिथिलगात कांपत हियो, बोलत बनत न बैन । करी खरी विपरीति कहुँ, कहत रँगीले नैन ॥१३॥ कै अपनी दुर्नीति कै, दुवनक्रूरता मानि । आवै उरमें शोच अति, सो शंका पहिचानि ॥१४॥ अथ शंका ।। कवित्त--मोहिं लखि सोबत विथोरिनो सुवेनी बनी, तोरिगो हियेको हार छोरिगो सु गैयाको । कहै पदमाकर त्यों , घोरिंगों अनेरो, दुख,
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