जगद्विनोद। (८५) हुहिबो जोदुहाइबोदोउनकोसखिदेखतहींबनि आवतहै ॥ दोहा-पहिर कण्ठविच किंकिणी, कस्योकमर बिच हार ॥ हरबरायदेखनलगी, कबते नन्दकुमार ॥ ५१ ॥ होत जहां इकबारही, त्रास हास रस रोष ।। तासों किलकिंचितकहत, हावसबै निर्दोष ॥ ५२ ॥ किलकिश्चित्त--सवैया ॥ फागुनमें मधुपान समय पदमाकर आइगे श्याम सँघाती । अंचलण्चोउँचायभुजाभरै भूमिगुलालकी ख्यालसुहाती ॥ झठिहूदै झझकाय जहां तियझांकी झकी झझकी मदमानी । रूसिरही घरी आधकलौंतियझारत अङ्गनिहारत छाती ॥ दोहा- चढ़त मोहभरकत हियो, हापन मुख स्यात् । मदछाकीतियकोजु पिय, छबिछकि परसत मात ॥ जहँ अंगनकी छवि सरस, बरतन,चलन चितौन । ललित हाव ताको कहत, जे कवि कविता भौन ॥ अथ ललित ॥ कवित्न--मजि ब्रजचन्द्रपे चली यों मुखचन्द्र जाको, चन्द्रचांदनीको मुखमन्द मा करत जात । कहै पदमाकर त्यों सहज सुगन्धहीके, पुंज बन कुंजन में कंजसे भरत जात ॥ परत जहांई जहां पगहै पियारी तहां, मंजुल मँजीठहीके माठसे ढरत जात । बारनते हीरा श्वेत सारीकी किनारनते, हारनवे मुकुता हजारन झरत जात ॥ ५६ ॥ -
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