यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जगद्विनोद (७३) और डोर झौरनमें बौरनके द्वै गये । कहै पदमाकर सु और भाँति गलियान, छलिया छबीले छल और छबिछवै गये। और भाँति बिहंग समाज में अवाज होत, ऐसो ऋतुराजके न आजदिन है गये। औरै रस औरै रीति औरै राग आरैरंग, औरै तन और मन और वन है गये॥४७॥ पात बिन कीन्हें ऐसी भांति गनबेलिनके, परत न चीन्हे जे ये लरजत टुंजहैं । कहै पदमाकर बिसासी या बसन्तकेसु, ऐसे उतपात गात गोपिनके भुंजहैं । ऊधो यह सूधोसोसँदेशो कहि दीजो भले, हरिसों हमारे ह्यां न फूले बन कुंजहैं । किंशुक गुलाबकचनार और अनारनकी, डारनपै डोलत अंगारनके पुंजहैं ॥४८॥ सवैया ॥ ये ब्रजचन्द्र चलोकिन वाबजलूकै बसन्तकी ऊकनलागी । त्योपदमाकर पेखोपलाशन पावक सीमानो फूंकन लागी । वैबजबारी विचारीबधू बनवारी हियेलौं सुहकन लागी । कारीकुरूप कमाइनैपै सुकुहूंकुहूं वैलिया कूकन लागी । अथ ग्रीष्म ऋतु वर्णन ॥ कवित्त-कहरै फुहार नीर नहर नदीसी बहै,