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जगद्विनोद । (७१) विरहव्यथानि सुनायक, विरहनिवेदन जानि । दोउनकोजुमिलाइबो, सो संघट्टनमानि ॥ ३८॥ अथ विरहनिवेदनको उदाहरण । कवित्त-आईतजिहाँतोताहितरनितनूजा तीर, ताकि ताकि तारापति तरफति तातीसी । कहै पदमाकर घरीकही में घनश्याम, काम तौक तलवाज कुंजनढे करतीसी ॥ याही छिन वाहीसोन मोहनमिलोगे जोपै, लगनि लगाई एती अगिनिअवातीसी । रावरी दुहाई तौ बुझाई न बुझेगी फेर, नेह भरी नागरी की देह दियाबातीसी ॥ ३९ ।। दोहा-को जिवावतो आजुलों, बाढ़े विरह बलाय । होति जु पैन नहा इसी, ताकी तनक सहाय ॥४०॥ उदाहरण ॥ कविन-तासनकी गिलमें गलीचा मखतूलनके, झरपै झुमाऊ रही झूमि रंगद्वारीमें। कहै पदमाकर सुपदीप मणि मालिनकी, लालनकी सेजफूल जालन समागमें ॥ जैसे तैसे नितछलबलमों छबीली वह, छिनक छबीलीको मिलाय दई प्यारीमें । छूटि भाजी करते सु करके विचित्र गति, चित्र कैसी पूरी न पाई चित्रसारीमें ॥ ११ ॥