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जगद्विनोद । (५) अंग अंग फैलत तरंग . परिमलके । वारनके भार. सुकुमारको लचत लंक, राजत प्रयंक पर भीतर महलके । कहैं पदमाकर विलोकि जन रोझै जाहि, अम्बर अमल के सकल जल थलके । कोमल कमलके गुलाबनके दलके, जाव गड़ि पाँयन बिछाना मखमलके ॥ १२ ॥ पुनर्यथा -सवैया ॥ जाहिरै जागतसी यमुना जब बड़े बहै उमहै वह बेनी। त्यों पदमाकर हीराके हारन गंगतरंगनको सुखदेनी ।। पाँयनके रंगसों (गिजातसी भांतिही भांति सरस्वतिने नी । पैरैजहांई जहां वहबार तहां तहँ तालमें होत त्रिबेनी ॥१३॥ पुनर्यथा ॥ कवित्त-आई खेलि होरी धनै नवलकिशोर कहूं, बोरीगई रंगमें सुगन्धनि अकोरै है। कहैं पदमाकर इकन्तचलि चौकी चढ़ि, हारनके बारनके फंद बंद छोरैहै। घाँघरेकी धूमनि सु. ऊरुन दुबीचेदाबि, आँगिहू उतारि सुकुमार मुख. भोरैहै । दंतनि अधरदाबि दुनार भईसी चापि, चौवर पचौवर कै चूनर निचोरहै ॥१४॥