जगद्विनोद । आप जगदीश्वर है जग में विराजमान, हौंहूं तो कवीश्वर है शजते रहतहौं । कहै पदमाकर त्यों जोरत सुयश आप, होहूं त्यों तिहारो यश जोरे उमहत हौं । श्रीजगतसिंह सदा राजमान सिंहवत, बात यह साँची कछू काची न कहतहौं । आपु ज्यों चहत मेरी कवितादराज त्यों मैं, उमरिंदराज राज रावरी चहतहौं ॥६॥ दोहा-जमतसिंह नृप जगतहित, हर्षकिये निधि नेह ।। कवि पवाकर सों कह्यो, सुरस ग्रन्थ रचि देह ॥७॥ जगतसिंह नृप हुकुमते, पाइ महा मनमोद ॥ पनाकर जाहिर कहत, जगहित जगत विनोद ।।८।। नवरसमें जु श्रृंगाररस, सिरे कहत सब कोय ।। सुरस नायका नायकहि, आलम्बित है होय ॥९॥ नाते प्रथमहि नायका, नायक कहत बनाय ।। युनियथामति आपनी, सुकविनको शिरनाय ॥१०॥ अथ नायिका लक्षणम् ॥ दोहा-रमशृंगारको भाव उर, उपजहि जाहि निहार । ताहीको कविनायका, वर्णत विविधविचार ॥ ११ ॥ अथ नायिकाको उदाहरण । कवित्त-सुन्दर सुरंग नैन शोभित अनंग रंग,
पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।