(१८) जगद्विनोद । अथ भूतसुरत संगोपनाका उदाहरण ॥ कवित्त-आली हौं गई हौं आज भूलि बरसाने कहूं, तापै तू परैहै पदमाकरतनै नीयों। व्रजवनिता वे बनितान पै रचैहैं फाग, तिनमें जु ऊधमिनि राधा मृगनैनीयों ॥ घोरिडारी केसरि सुबेसार बिलोरिडारी, बोरिडारी चूनार चुचात रंगनैनी ज्यों ॥ मोहिं झकझोरिडारी कंचुकी मरोरि डारी, तोरिडारी कनि बिथोरिडारी बेनी त्यों ॥ ८७ ॥ दोहा-छुटत कंप नहिं रैनिदिन, बिदिव बिदारति कोय ॥ अति शीतल हेमन्त की, अरी जरी यह तोय।।८८॥ अथ वर्तगन सुरतगोपनाका उदाहरण- सवैया ऊधम ऐसो मचो ब्रजमें सब रंग तरंग उमंगनि सीचें । त्योपदमाकरछजनिछातनि छवैछितिछाजति केसारकीचें ॥ पिचकीभजिभौजितहांपरे पीछे गोपालगुलालउलीचें । एकहि संग यहां रपटे सखिये भये ऊपर मैं भई नीचें ॥ दोहा-चढ़त बाट बिचलौ सुपग, भरो आन इक अंक । ताहि कहा तुम तकरही, यामें कौन कलंक ॥१०॥ अथ भविष्य सुरत गोपना । कवित--आजुते न मैं दधि बेचन दोहाई खाउँ, मैयाकी कन्हैया उत' डाढ़ोई रहत है। .
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