पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/१३४

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(१३१) जगद्विनोद । पुनर्यथा ॥ कवित्त-मुरली बजाई तानगाई मुसक्याय मन्द, लटकि लरकि माई नृत्यमें निरव है । कहै पदमाकर गोविन्दके उछाह अहि, विषको प्रवाह पति मुखप झिरतहै ॥ ऐसो फैल परत फुसकरतही में मनो, तारन को वृन्द फूत कारन गिरत है । कोप कार जौलों एक फन फुफकावैकाली, तौलोंवनमाली सोऊ फनपै फिरतहै ॥ १४ ॥ सात दिन सात राति करि उतपात महा, मारुत झकोरै तरु तोरै दहि दुखमें । कहै पदमाकर करी त्यों धुम धारनहू, पते पै न कान्ह कहू आयो रोप रुखमें ॥ छोरि छिगुनीके छत्र ऐसो गिरि छाइ राख्यो, ताके तरे गाथ गोय गोपी खरा ससमें । देखि देखि मेघनको सेन अकुलानी रह्यो । सिन्धुमें न पानी अरु पानी इन्दु मुख में ॥१५॥