(१२२) जगद्विनोद। विरह बिम्ब अकुलायउर, त्यों पुनि कछुन सुहाय । चित न लगत कह कैसहू, सो उद्वेग बनाय ॥५२॥ उद्वेगका वर्णन ॥ पुनर्यथा ॥ कवित्त-घर ना सुहात ना सुहात बन बाहिरहूं, बागना सुहात जो खुशाल खुशबोहीसों । कहै पदमाकर बनेरे धन धाम त्योंहीं, चैन न सुहात चांदनीहूं योग जोहीसों ॥ सांझहु सुहात न सुहात दिन मांझ कछु, ब्यापी यह बात सो बखानतहौं तोहीसों। रातिहु सुहात न सुहात परभात आली, जब मन लागि जात काहू निर्मोहीसों ॥ ५३ ॥ दोहा- है उदास अति राधिका, ऊंचे लेति उसाँस । सुनि मनमोहन कान्हकी, कुटिल कूबरी पास ॥ विरही जन जहँ कहत कछु, निरखि निरर्थकबैन । वासों कहत प्रलापहैं; कवि कविताके ऐन ॥५५॥ प्रलापका उदाहरण ॥ कवित्त--आमको कहत अमिली है अमिलीको आम, आकही अनारनको आकिबो करति है। कहै पदमाकर तमालनको ताल कहै, वालनि तमाल कहि वाकिबो करति है। कान्हें कान्ह काहूकहि कदलीकदम्बनिको, भेटि पररम्भनमें छाकिबो करति है।
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