पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/११७

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जगद्विनोद । (११७) बैगयो सनेह फिर छुवै गयो छराको छोर, फगुवा न दैगयो हमारो मन ले गयो ॥ २३ ॥ दोहा-ज्यों ज्यों वर्षत घोर घन, घन घमण्ड गरुवाइ । त्यों २ परति प्रचण्ड अति, नई लगनकी लाइ२४ सूचक पिय अपराधकी, इंगित कहियेमान । त्रिविधमानसी मानिए, लघु मध्यम गुरु आन २५ परतिय दरशन दोषते, फरै जु तिय कछु रोष । सुलघु मान पहिचानिये, होतख्यालही तोष २६ लघुमान वर्णन ॥ .. कवित्त--वाहीके रँगी है रँग वाहीके पगीहै मग, वाही के लगी है सँग आनंद अगाधको । कहै पदमाकर न चाह तजि नेकु दृग, तारनते न्यारो कियो एकपल आधाको । ताहूपै गोपाल कछु ऐसे ख्याल खेलतहैं, मान मोरबेकी देखिबेकी कार साधाको ॥ काहू पै चलाई चख प्रथम खिझावै फेरि, बाँसुरी बजाइकै रिझाय लेत राधाको ॥ २७ ॥ दोहा-ये हैं जिनसुख वेदिये, करति क्यों न हित होस । ते सब अबहिं भुलाइयतु, तनक दृगनके दोस २८ और तियाके नाम कहुँ, पियमुखते कढ़िजाय । होत मानमध्यममिटे, सौहन किये बनाय ॥२९॥