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(११६) जगद्विनोद । कहै पदमाकर ज्यों तानमे पगीहै त्योही, तेरी मुसकानि कान्ह प्राणमें पगी रहै ॥ धीर धर धीरधर कीरति किशोरीभई, लगन इतै उतै बराबर जगीरहै। जैसी रट तोहि लागी माधवकी राधे ऐसी, राधे राधे राधे रट माधव लगी रहै ॥ २१ ॥ पुनर्यथा ॥ कवित्त-मोहिं तजि मोहने मिल्योहै मनमेरी दरि, नयनहुं मिलेहैं देखि देखि साँवरो शरीर । कहे पदमाकर त्यों वान मय कान भये, हौंतो रही जकि थकि भूलीसी श्रमीसी वीर ॥ येतौ निर्दयी दई इनको दया न दई, ऐसी दशा भई मेरी कैसे धरौं तन धीर । हौंतो मनहूंके मन नैननके नैन जोपै, काननके कान वोपै जानतो पराई पीर ॥ २२॥ पुनर्यथा ॥ कवित-मधुर मधुर मुख मुरली बजाय ध्वनि, धमकि धमारनकी धाम धाम कै गयो । कहै पदमाकर त्यों अगर अबीरनकी, कारकै घलाघली छला छली चितै गयो । कोहै वह ग्वालिनी गुवालनके संगमें, अनंग छबि वारो रस रंगमें भिजै गयो ।