भाव ॥ (११२) जगदिनोद। याखारिज खराब हाल खालकी खलीती है॥२४॥ दोहा-लखिविरूप शूरपनखै, सरुधिर चर चुचुवात । सिय हिय घिनकीलता, भई सुदैव पात ॥२५॥ दरश परश सुनि सुमिरिजहँ, कानहुँअजबचरित्र । होइ जुचित विस्मित कछू, सो आचरज पवित्र । याही को विस्मयथायी जानिये ॥ अथ अचरजका उदाहरण-सवैया ॥ देखतक्योंनअपूरबइन्दुमें दैअरविन्दरहेगहिलाली ॥ त्योपदमाकर कीर बधू इक मोतीचुगमनोभैमतवाली ॥ ऊपरतेतमछायरहोरविकीदवतेनदबैखुलि ख्याली योंसुनिबैनसखीके विचित्रभये चितचकतसेवनमाली ॥ दोहा-नलकत पुललखि सिन्धुमें, भयेच कितसुरराव ॥ रामपाद नभते सबर्हि, सुमिरि अगस्त्यप्रभाव ॥ निफल श्रमादिकते जुकछु, उरउपजत पछिताव ॥ संगति हित निर्वेदसों, सम रसको थिरभाव ॥२९॥ अथ निर्वेदका उदाहरण- --सवैया ॥ द्वैथिरमन्दिरमें न रह्योगिरिकन्दरमें न तप्योतपजाई । राजरिझाये नकै कवितारघुराजकथा न यथामति गाई ॥ योंपछितातकछू पदमाकर कासोंकहौ निजमूरखवाई । स्वारथहूं न कियोंपरमारथ योहीं अकारथबैस बिताई । पुनर्यथा-सवैया ।। भोगमेरोग वियोग सँयोगमें योगये काय कलेशकमायो
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