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जगद्विनोद। (99) दोहा-तिय तनुलाज मनाजकी, यों अब दशादिखाति । ज्यों हिमन्तऋतुमें सदा, पटत बढ़त दिन राति ॥ पौढ़ा विविध बखानहीं, रति प्रिया इकबाम । आनंद अति सम्मोहिवा, लक्षण इनके नाम ॥४८॥ अथ रतिप्रियाका उदाहरण-सवैया ।। लपटैपट पीतमके पहिरो पहिराय पियै चुनचुनरखासी । त्योपदमाकरसांझहीवे सिगरी निशिकेलि कलापरगासी कूलतफूल गुलाबनके चटकाहटिचौंकिचकी चपलासी कान्ह केकानन आँगुरीनाइ रही लपटाइलवंगलतानी ॥ दोहा-करत केलि पिय हियलगी, कोककलिन अवरेखि विमुद कुमुदलौं ढेरही, चन्छ मन्द युतिदेखि ॥५०॥ अथ आमन्दसम्मोहिताका उदाहरण-सवैया । रीतिरची परतीतिरची रातप्रीतमसंग अनंगझरीमैं । त्योपदमाकर टूटेहराते सरासरसेज परे सिगरी मैं ॥ यों करिकेलि विमोहित है रही आनंदकी सुघरी उपरीमैं । नीबी नबार सँभारिबकी सुभईसुधि नारिकी चारिपरीमैं। दोहा-भई मगन जो नागरी, सुलहि सुरत आनन्द । अंग अंगोछि भूषण बसन, पहिरावत नँदनन्द ॥ मान समय मध्या त्रिविष, त्रिधा कहत प्रौढाहि । धीरा बहुरि अधीरगनि, धीरा धीरा याहि ॥ ५३ ॥ कोप जना व्यंग्यसों, तजै न पति सन्मान । मम्या पारा कहत हैं, वासों सुकवि सुजान ॥५४॥