(१०८) जगद्विनोद । हैसब भावन में सिरे, टरत न कोटि उपाव । कै परिपूरण होत रस, तेई थेई भाव ॥ २॥ रति इकहास जु शोक पुनि,बहुरि क्रोध उत्साह । भय ग्लानि आचरज निर, बेद कहत कविनाह ॥३॥ नवरसके नौई इतै, थायी भाव प्रमाण । तिनके लक्षण लक्षसब, या विधि कहत सुजान॥४॥ सुप्रिय चाहते होत जो, सुमन अपूरब प्री। ताहीसों रति कहतहैं, रसग्रंथनकी रीति ॥५॥ अथ रतिका उदाहरण ।। कवित्त--सजनलगी है कहूं कबहूं शृंगारनको, तजन लगी है कहूं ये सब सवारी की। चखन लगी है कछु चाह पदमाकर त्यों, लखन लगी है मंजु मूरति मुरारी की। सुन्दर गोविन्द गुण गगन लगी है कछु, सुनन लगी है बात बाँकुरे बिहारी की। पगन लगी है लगी लगन हियेसों नेकु, लगन लगी है कछु पीकी प्राणप्यारीकी ॥ ६॥ दोहा-कान्ह तिहारे मानको, अति आतप यह पाय । तिय उर अंकुर प्रेमको, जाइन कहुँ कुम्हिलाय ॥७॥ वचन रूपकी रचनते, कछुडर लहै विकास । वाते परमित जो हँसनि, वहै कहीयतु हास ॥ ८ ॥
पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/१०८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।