(१०६) जगद्विनोद । चित्रसारी चित्रसारी चन्द्र सम ढरही ।। कहै पदमाकर त्यों निकस्यो गोविंद ताहि, जहां तहां इकटक ताकि धरी है रही । छज्जावारी छकीसी उझकीसीझरोखावारी, चित्र कैसी लिखी चित्रसारी वारी दरही ॥९९॥ दोहा-हलै दुहूंन चले दुहूं, दुहुँ न विसरिगे गेह । इकटकदुहुँनिदुहूँ लख, अटकिअटपटेनेह ॥ १० ॥ जहँ अति अनुरागादि ते, थिरता कछू रहै न। तित चित चाहै आचरण, वहै चपलता ऐन ॥१ ।। अथ चपलताका उदाहरण-सवैया ॥ कौतुक एकलख्योहरिह्यां पदमाकर यों तुम्हें जाहिरकीमैं । कोऊ बड़े घरकी ठकुराइनि ठाढीनघातरहैं छिनकी मैं । झांकतिहै कबहूझझरीन झरोखनि त्यों सिरकी सिरकी मैं । झांकतिही रिक्रकीमें फिरैथिरकीथिरकीखिरकीखिरकी मैं ॥ दोहा-चकरीलौं सकरी गलिन, छिन आवत छिनजात । परी प्रेमके फन्दमें, बधू बितावत रात ॥ ३ ॥ उर उपजत सन्देह जहँ, कीजे कछू विचार । ताहि वितर्क विचारहौ, जे कवि सुमति उदार ॥४॥ अथ वितर्कका उदाहरण ॥ कवित्त-योस गुण गौरिके सु गिरिजा गोसाँइनको, आवत यहांही अति आनंद इतै रहै ॥ कहै पदमाकर प्रतापसिंह महाराज,
पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/१०६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।