(१०२) जगद्विनोद । लहलही लांबी लटै लपटी सु लंकपर । कहै पदमाकर मजानि मरगजी मंजु, मसकी सु आंगी है उरोजनके अंकपर ॥ सोई रससार पोस गन्धनि समोई स्वेद, शीतल सुलोने लोने वदन मयंकपर ॥ किन्नरी नरी है कै छरी है छबिदार परी, टूटीसी परीहै कै परीहै परयंक पर ॥७७॥ दोहा-नंदनँदन नवनागरी, लखि सोचत निमूल । उरउपरे उरजन निरखि, रह्यो सुआननफूल ॥७॥ विरह विवश कामादिते, तनु संतापित होय । ताहीसों सब कवि कहत, व्याधि कहावत सोय॥७९॥ अथ व्याधिका उदाहरण ॥ कवित्त-दुरहिते देखत व्यथा म वा वियोगिनिकी, आई भले भाजि ह्यां तोलाज मढ़ि आवैगी। कहै पदमाकर सुनोहो घनश्याम जाहि, चेतत कहूं जो एक आहि कढ़ि आवैगी ॥ सर सरितान को न सखत लगगी देर, येती कछू जुल मिन ज्वाला बढ़ि आवैगी। वाते तन तापकी कहौं मैं कहा बात मेरे, गातहि छुवोतो तुम्हें ताप चढ़ि आवैगी ॥ ८॥ दोहा-कबकी अजब अजार मैं, परी बाम तनछाम ।
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