पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/१००

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(१००) जगद्विनोद । दोहा--निरखतही हार हरपकै, रहे सु अंशू छाप । बूझत अलि केवल कह्यो, गयो धूमही धाय ॥६॥ अति दुखते विरहादिते, परति जबहिं जो दीन । ताहि दीनता कहतहैं, जे कवित्त रसलीन ॥ ६५॥ अथ दीनताका उदाहरण--सवैया । कैगिनतीसी इती विनती दिन तीन कलौं बहुवार सुनाई। त्यों पदमाकर मोहमयाकारतोहिंदयान दुखीनकी आई ॥ मेरो हराहर हार भयो अबताहि उतारि उन्हें नदिखाई। ल्याईनतूकबहूंबनमालगोपालकीवापहिरीपहिराई ॥ ६६ ॥ दोहा-मुख मलीन तनछीन छवि, परी सेजपर दीन । लेत क्यों न सुधि सांवरे, नेहो निपट नवीन ॥६७॥ जहां कौनहूं बातते, उर उपजत आनन्द । प्रकटें पुलक प्रस्वेदते, कहत हरष कविवृन्द ॥६८॥ अथ हर्षका उदाहरण-सवैया ॥ जगजीवनको पलजानि परयो धनि नैननिकोठहरैयतुहै। पदमाकर ह्यो हुलसै पुलकै तनुसिंधु सुधाके अन्हैय तुहै। मन पैरत सोरसके नदमें अति आनंदमें मिलिजय तुहै। अब ऊँचे उरोज लखै तियके सुरराजके राजसों पैयतुहै । दोहा-तुमहिं विलोकि विलोकिये, हुलसि रह्यो यों गात । आँगी में न समात उर; उरमें मृदुन समात ।।७०॥ जहां कौनहूं हेतते, उर उपजत अति लाज । वीडा तासों कहतहैं, सुकविनके शिरवाज ॥ ७१ ॥