मंसूर---जहांपनाह ! वह तो गुलाम है । फकत हुजूर की कदमबोसी हासिल करने के लिये आया है। और, उसकी तो यही
अर्जी है कि हमारे आका शाहंशाह-हिन्द एक काफिर के हाथ की
पुतली न बने रहें । अगर हुक्म दें, तो क्या यह गुलाम वह काम
नहीं कर सकता ?
शाह०---मंसूर ! इसके माने ?
मंसूर---बन्दःपरवर ! वह दिल्ली की वजारत के लिये अर्ज करता है और गुलामी में हाजिर होना चाहता है । उसे तो सेंधिया से रंज है, हुजूर तो उसके मेहरबान आका है।
शाह०---(जरा तनकर) हां मंसूर, उसे हमने बचपन से पाला है,और इस लायक बनाया।
मंसूर---(मन मे ) और उसे आपने ही, खुद-गरजी से--—जो काबिल-नफरत थी---दुनिया के किसी काम का न रक्खा, जिसके लिये वह जी से जला हुआ है।
शाह०---बोलो मंसूर ! चुप क्यों हो ? क्या वह एहसान-फरामोश है ?
मंसूर---हुजूर ! फिर, गुलाम खिदमत में बुलाया जावे ?
शाह०---वजारत देने में मुझे कोई उज्र नहीं है । वह संभाल सकेगा।
मंसूर---हुजूर, अगर वह न सँभाल सकेगा, तो उसको वही झेलेगा। सेंधिया खुद उससे समझ लेगा।
शाह०---हां जी, सेंधिया से कह दिया जायगा कि लाचारी से उसको वजारत दी गयी । तुम थे नहीं, उसने जबर्दस्ती यह काम अपने हाथ में लिया ।
मंसूर---और इससे मुसलमान रियाया भी हुजूर से खुश हो जावेगी। तो, उसे हुक्म आने का भेज दिया जाय ?
शाह०---बेहतर।