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छाया


उतर पडा । पथिक बड़े वेग से अश्व से उतरा, पर वह भी स्तब्ध होकर खड़ा हो गया; क्योकि उसको भी उसी स्वर-लहरी ने मत्रमुग्ध फणी की तरह बना दिया । मृगया-शील पथिक क्लान्त था---वृक्ष के सहारे खडा हो गया । थोड़ी देर तक वह अपने को भूल गया । जब स्वर-लहरी ठहरी, तब उसकी निद्रा भी टूटी । युवक सारे श्रम को भूल गया, उसके अंग में एक अद्भुत स्फूर्ति मालूम हुई। वह, जहां से स्वर सुनाई पड़ता था, उसी ओर चला । जाकर देखा, एक युवक खडा होकर उस अन्धकार-रंजित जल की ओर देख रहा है।

पथिक ने उत्साह के साथ जाकर उस युवक के कन्धे को पकड़ कर हिलाया। युवक का ध्यान टूटा । उसने पलटकर देखा ।

पथिक का वीर-वेश भी सुन्दर था । उसकी खड़ी मूंछे उसके स्वाभाविक गर्व को तनकर जता रही थी। युवक को उसके इस असभ्य बर्ताव पर क्रोध तो आया, पर कुछ सोचकर वह चुप हो रहा । और, इधर पथिक ने सरल स्वर से एक छोटा-सा प्रश्न कर दिया--क्यों भई, तुम्हारा नाम क्या है ?

युवक ने उत्तर दिया--रामप्रसाद ।

पथिक--यहां कहां रहते हो? अगर बाहर के रहने वाले हो, तो चलो, हमारे घर पर आज ठहरो ।

युवक कुछ न बोला, किन्तु उसने एक स्वीकार-सचक इंगित किया।पथिक और युवक, दोनों, अश्व के समीप आये । पथिक ने उसकी लगाम हाथ में ले ली। दोनों पैदल ही सड़क की ओर बढ़े।

दोनों एक विशाल दुर्ग के फाटक पर पहुंचे और उसमे प्रवेश किया । द्वार के रक्षकों ने उठकर आदर के साथ उस पथिक को