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छाया
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शासक ने कहा---जैसी आज्ञा ।



पौण्डवर्धन नगर में हाहाकार मचा हुआ है । नगर-निवासी प्रायः उदिग्न हो रहे हैं । पर विशेषकर जैन लोगों ही में खलबली मची हुई है । जैन-रमणियां जिन्होंने कभी घर के बाहर पैर भी नहीं रक्खा था, छोटे शिशुओं को लिये हुए भाग रही है । पर जायें कहां ? जिधर देखती है, उधर ही सशस्त्र उन्मत्त काल बौद्ध लोग उन्मत्तों की तरह दिखाई पड़ते है । देखो, वह स्त्री, जिसके केश परिश्रम से खुल गये है---गोद का शिशु अलग मचल कर रो रहा है, थककर एक वृक्ष के नीचे बैठ गयी है ; अरे देखो ! दुष्ट निर्दय वहां भी पहुंच गये, और उस स्त्री को सताने लगे ।

युवती ने हाथ जोड़कर कहा---आप लोग दुःख मत दीजिये । फिर उसने एक-एक करके अपने सब आभूषण उतार दिये और वे दुष्ट उन सब अलंकारों को लेकर भाग गये । इधर वह स्त्री निद्रा से क्लान्त होकर उसी वृक्ष के नीचे सो गयी ।

उधर देखिये, वह एक रथ चला जा रहा है, और उसके पर्दे हटाकर बता रहे है कि उसमें स्त्री और पुरुष तीन-चार बैठे हैं। पर सारथी उस ऊँची-नीची पथरीली भूमि में भी उन लोगों की ओर बिना ध्यान दिये रथ शीघ्रता से लिये जा रहा है। सूर्य की किरणे पश्चिम में पीली हो गयी है। चारों ओर उस पथ में शान्ति है। केवल उसी रथ का शब्द सुनाई पड़ता है, जो अभी उत्तर की ओर चला जा रहा है ।

थोड़ी ही देर में वह रथ सरोवर के समीप पहुंचा और रथ के घोड़े हांफते हुए थककर खड़े हो गये । अब सारथी भी कुछ न कर ,सका और उसको रथ के नीचे उतरना पड़ा।