यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
छाया
७०
 


तिष्यरक्षिता---नहीं कुनाल, मै तुम्हारी प्रेम-भिखारिनी हूँ, राजा. रानी नहीं हूँ; और न तुम्हारी माता हूं।

कुनाल---(कुजं से बाहर निकलकर) माताजी, मेरा प्रणाम ग्रहण कीजिये, और अपने इस पाप का शीश प्रायश्चित्त कीजिये । जहां तक सम्भव होगा, अब आप इस पाप-मुख को कभी न देखेंगी।

इतना कहकर शीघ्रता से वह युवक राजकुमार कुनाल, अपनी विमाता की बात सोचता हुअ, उपबत के बाहर निकल गया । पर तिव्यरक्षिता किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वहीं तब तक खड़ी रही, जब तक किसी दासी के भूषण-शब्द ने उसकी मोहनिद्रा को भंग नहीं किया।


श्रीनगर के समीपवर्ती कानन में एक कुटीर के द्वार पर कुनाल बैठा हुआ ध्यानमग्न है। उसकी सुशील पत्नी उसी कुटीर में कुछ भोजन बना रही है।

कुटीर स्वच्छ तथा उसकी भूमि परिष्कृत है । शान्ति को प्रबलता के कारण पवन भी उस समय धीरे-धीरे चल रहा है।

किन्तु वह शान्ति देर तक न रही, क्योंकि एक दौड़ता हुआ मृगशावक कुनाल की गोद में आ गिरा, जिससे उसके ध्यान में विघ्न हुआ, और वह खडा हो गया । कुनाल ने उस मूग-शावक को देखकर समझा कि कोई ब्याध भी इसके पीछे आता ही होगा। पर जब कोई उसे न देख पड़ा, तो उसने उस मृगशावक को अपनी स्त्री 'धर्मरक्षिता' को देकर कहा---प्रिये ! क्या तुम इसको बच्चे की तरह पालोगी?

धर्मरक्षिता---प्राणनाथ, हमारे-ऐसे वनचारियों को ऐसे ही बच्चे चाहिये।

कुनाल---प्रिये ! तुमको हमारे साथ बहुत कष्ट है।