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रसिया बालम
 

समीप एक पुरुष खड़ा है, और उसकी आंखों से अश्रुधारा बह रही है, और वह कह रहा है---बलवन्त ! ऐसी शीघ्रता क्या थी जो तुमने ऐसा किया? यह अर्ब द-गिरि का प्रदेश तो कुछ समय में यह वृद्ध तुम्हीं को देता, और तुम उसमें चाहे जिस स्थान पर अच्छे पर्यक पर सोते। फिर,ऐसे क्यों पड़े हो ? वत्स ! यह तो केवल तुम्हारी परीक्षा* थी, यह तुमने क्या किया ?

इतने में एक सुन्दरी विमुक्त-कुन्तला---जो कि स्वयं राजकुमारी थी---दौड़ी हुई आयी और उस शव को देखकर ठिठक गयी, नत-जानु होकर उस पुरुष का जो कि महाराज थे और जिसे इस समय तक राजकुमारी पहचान न सकी थी--चरण धरकर बोली-- महात्मन् ! क्या इस व्यक्ति ने, जो यहां पड़ा है, मुझे कुछ देने के लिये आपको दिया है ? या कुछ कहा है ?

महाराज ने चुपचाप अपने वस्त्र में से एक वस्त्र का टुकड़ा निकालकर दे दिया। उस पर लाल अक्षरों में कुछ लिखा था । उस सुन्दरी ने उसे देखा और देखकर कहा---कृपया आप ही पढ़ दीजिये।

महाराज ने उसे पढ़ा । उसमें लिखा था-"मैं नहीं जानता था कि तुम इतनी निठुर हो । अस्तु; अब मै यहीं रहूंगा; पर याद रखना, मैं तुमसे अवश्य मिलूंँगा, क्योंकि मैं तुम्हें नित्य देखा चाहता हूँ; और ऐसे स्थान में देखूंगा, जहां कभी पलक गिरती ही नहीं।

तुम्हारा दर्शनाभिलाषी-

रसिया"

इसी समय महाराज को सुन्दरी पहचान गयी, और फिर चरण धरकर बोली---पिताजी, क्षमा करना । और, शीघतापूर्वक रसिया


  • वास्तव में वह शब्द कुक्कुट का नहीं बल्कि छद्म-वेशिनी महारानी का था, जो कि बलवन्त सिंह-एसे दीन व्यक्ति से अपनी

कुसुम-कुमारी का पाणिग्रहण करने की अभिलाषा नही रखती थी। किन्तु महाराज इससे अनभिज्ञ थे।