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छाया
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शैल पर वज्र के समान कर से वह युवक चोट लगाये ही जाता है। केवल परिश्रम ही नहीं, युवक सफल भी हो रहा है । उसकी एक-एक चोट में दस-दस सेर के ढोके कट-कटकर पहाड़ पर से लुढ़कते है, जो सोये हुए जंगली पशुओं को घबड़ा देते है। यह क्या है ?केवल उसकी तन्मयता । केवल प्रेम ही उस पाषाण को भी तोड़े डालता है !

फिर वही दनादन्---बराबर लगातार परिश्रम, विराम नही है ! इधर उस खिड़की में से आलोक भी निकल रहा है और कभी- कभी एक मुखड़ा उस खिड़की से झांककर देख रहा है । पर युवक को कुछ ध्यान नहीं, वह अपना कार्य करता जा रहा है ।

अभी रात्रि के जाने के लिये पहर-भर है । शीतल वायु उस कानन को शीतल कर रही है। अकस्मात् 'तरुण-कुक्कुट-कण्ठनाद'सुनाई पड़ा, फिर कुछ नहीं । वह कानन एकाएक शून्य हो गया।न तो वह शब्द ही है और न तो पत्थरों से अग्निस्फुलिंग निकलते हैं।

अकस्मात् उस खिड़की में से एक सुन्दर मुख निकला । उसने व्यालोक डालकर देखा कि रसिया एक पात्र हाथ में लिये है और कुछ कह रहा है । इसके उपरान्त वह उस पात्र को पी गया और थोड़ी देर में वह उसी शिलाखण्ड पर गिर पड़ा। यह देख उस मुख से भी एक हल्का चीत्कार निकल गया। खिड़की बन्द हो गयी। फिर केवल अन्धकार रह गया।

प्रभात का मलय-मारुत उस अर्बुद-गिरि के कानन में वैसी क्रीड़ा नही कर रहा है, जैसी पहले करता था। दिवाकर की किरण भी कुछ प्रभात के मिस से मन्द और मलिन हो रही है। एक शव के