संसार को शान्तिमय करने के लिए रजनी देवी ने अभी अपना अधिकार पूर्णतः नही प्राप्त किया है । अंशुमाली अभी अपने आधे बिम्ब को प्रतीची में दिखा रहे है। केवल एक मनुष्य अबुंद-गिरि-सृदृढ़ दुर्ग के नीचे एक झरने के तट पर बैठा हुआ उस अर्ध स्वर्ण पिंड की ओर देखता है और कभी-कभी दुर्ग के ऊपर राजमहल की खिड़की की ओर भी देख लेता है, फिर कुछ गुनगुनाने लगता है।
घंटों उसे वैसे ही बैठे बीत गये । कोई कार्य नही, केवल उसे उस खिड़की की ओर देखना । अकस्मात् एक उजाले की प्रभा उस नीची पहाड़ी भूमि पर पड़ी और साथ ही किसी वस्तु का शब्द भी हुआ, परन्तु उस युवक का ध्यान उस ओर नहीं था।वह तो केवल उस खिड़की में के उस सुन्दर मुख की ओर देखने की आशा से उसी ओर देखता रहा जिसने केवल एक बार उसे झलक दिखाकर मंत्रमुग्ध कर दिया था।
इधर उस कागज में लिपटी हुई वस्तु को एक अपरिचित व्यक्ति, जो छिपा खड़ा था, उठाकर चलता हुआ । धीरे-धीरे रजनी की गम्भीरता उस शैल-प्रदेश में और भी गम्भीर हो गयी और झाड़ियों की ओट में तो अन्धकार मूर्तिमान ही बैठा हुआ ज्ञात होता था, परन्तु उस युवक को इसकी कुछ भी चिन्ता नहीं। जब तक उस खिड़की में प्रकाश था, तब तक वह उसी ओर निर्निमेष देख रहा था, और कभी-कभी अस्फुट स्वर से वही गुनगुना-हट उसके मुख से वनस्पतियों को सुनाई पड़ती थी।
जब वह प्रकाश बिलकुल न रहा, तब वह युवक उठा और
समीप के झरने के तट से होते हुए उसी अंधकार में विलीन हो गया ।