भ्रान्त होने से उन्हें बहुत समय व्यतीत हो गया । रात्रि अधिक
बीत गयी। कहां ठहरें ? इसी विचार में वह खड़े रहे, बूदें कम
हो गयीं। इतने में एक बालिका अपने मलिन वसन के अंचल की
आड़ में दीप लिये हुए उसी मचान की ओर जाती हुई दिखाई पड़ी।
३
बालिका की अवस्था १५ वर्ष की है। आलोक से उसका अंग अन्धकार-धन में विद्युल्लेखा की तरह चमक रहा था । यद्यपि दरिद्रता ने उसे मलिन कर रक्खा है, पर ईश्वरीय सुषमा उसके कोमल अंग पर अपना निवास किये हुए है। मोहनलाल न घोड़ा बढ़ाकर उससे कुछ पूछना चाहा, पर संकुचित होकर ठिठक गये। परन्तु पूछने के अतिरिक्त दूसरा उपाय ही नहीं था। अस्तु, रूखेपन के साथ पूछा---कुसुमपुर का रास्ता किधर है ?
बालिका इस भव्य मूर्ति को देखकर डरी, पर साहस के साथ बोली---मैं नहीं जानती। ऐसे सरल नेत्र-संचालन से इंगित करके उसने यह शब्द कहा कि युवक को क्रोध के स्थान में हँसी आ गयी और कहने लगा---तो जो जानता हो, मुझे बतलाओ, मै उससे पूछ लूगा।
बालिका---हमारी माता जानती होंगी।
मोहन०---इस समय तुम कहां जाती हो ?
बालिका---(मचान की ओर दिखाकर) वहां जो कई लड़के है, उनमें से एक हमारा भाई है, उसी को खिलाने जाती हूं।
मोहन०---बालक इतनी रात को खेत में क्यों बैठ है ?
बालिका---वह रात-भर और लड़कों के साथ खेत ही में रहता है।
मोहन०-तुम्हारी मां कहां है ?
बालिका---चलिये, मै लिवा चलती हूँ।
इतना कहकर बालिका अपने भाई के पास गयी, और उसको