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छाया
१८
 


राजा बहुत दुःखी हुए, और जंगल की सारी रामू को मिली ।

वसन्त की राका चारों ओर अनूठा दृश्य दिखा रही है। चन्द्रमा न मालूम किस लक्ष्य की ओर दौड़ा चला जा रहा है;कुछ पूछने से भी नहीं बताता । कुटज की कली का परिमल लिये पवन भी न मालूम कहां दौड़ रहा है, उसका भी कुछ समझ नहीं पड़ता। उसी तरह, चन्द्रप्रभा के तीर पर बैठी हुई कोल-कुमारी का कोमल कण्ठ-स्वर भी किस धुन में है---नही ज्ञात होता ।

अकस्मात् गोली की आवाज ने उसे चौंका दिया । गाने के समय जो उसका मुख उद्वेग और करुणा से पूर्ण दिखाई पड़ता था, वह घृणा और क्रोध से रंजित हो गया, और वह उठकर पुच्छमर्दिता सिंहनी के समान तनकर खड़ी हो गई, और धीरे से कहा--- यही समय है। ज्ञात होता है, राजा इस समय शिकार खेलने पुनः आ गये है---बस वह अपने वस्त्र को ठीक करके कोल-बालक बन गई, और कमर में से एक चमचमाता हुआ छुरा निकालकर चूमा।वह चांदनी में चमकने लगा। फिर वह कहने लगी---यद्यपि तुमने हीरा का रक्तपान कर लिया है, लेकिन पिता ने रामू से तुम्हें ले लिया है । अब तुम हमारे हाथ में हो, तुम्हें आज रामू का भी खून पीना होगा।

इतना कहकर वह गोली के शब्द की ओर लक्ष्य करके चली। देखा कि तहखाने में राजासाहब बैठे है । शेर को गोली लग चुकी ह, और वह भाग गया है, उसका पता नहीं लग रहा है, रामू सर्दार है, अतएव उसको खोजने के लिये आज्ञा हुई, वह शीघ्र ही सन्नद्ध हुआ। राजा ने कहा---कोई साथी लेते जाओ।

पहले तो उसने अस्वीकार किया, पर जब एक कोल-युवक स्वयं साथ