यह पृष्ठ प्रमाणित है।

चैत्र-कृष्णाष्टमी का चन्द्रमा अपना उज्ज्वल प्रकाश 'चन्द्रप्रभा'के निर्मल जल पर डाल रहा है। गिरि-श्रेणी के तरुवर अपने रंग को छोड़कर धवलित हो रहे हैं; कल-नादिनी समीर के संग धीरे-धीरे बह रही है। एक शिला-तल पर बैठी हुई कोल-कुमारी सुरीले स्वर से—'दरद-दिल काहि सुनाऊँ प्यारे! दरद'...गा रही है।

गीत अधूरा ही है कि अकस्मात् एक कोल-युवक धीर-पद-संचालन करता हुआ उस रमणी के सम्मुख आकर खड़ा हो गया। उसे देखते ही रमणी की हृदय-तंत्री बज उठी। रमणी बाह्‌य-स्वर भूलकर आन्तरिक स्वर से सुमधुर संगीत गाने लगी और उठकर खड़ी हो गई। प्रणय के वेग को सहन न करके वर्षावारिपूरिता स्रोतस्विनी के समान कोल-कुमार के कंध-कूल से रमणी ने आलिंगन किया।

दोनों उसी शिला पर बैठ गये, और निर्निमेष सजल नेत्रों से परस्पर अवलोकन करने लगे। युवती ने कहा—तुम कैसे आये?

युवक—जैसे तुमने बुलाया।

युवती—(हंसकर) हमने तुम्हें कब बुलाया! और क्यों बुलाया!

युवक—गाकर बुलाया, और दरद सुनाने के लिये।

युवती—(दीर्घ निश्वास लेकर) कैसे क्या करू! पिता ने तो उसी से विवाह करना निश्चय किया है।

युवक—(उत्तेजना से खड़ा होकर) तो जो कहो, मैं करने के लिये प्रस्तुत हूँ।

युवती—(चन्द्रप्रभा की ओर दिखाकर) बस, यही शरण है।