पिता ने मुझे आश्रय दिया, और मै सुख से तुम्हारा मुख देखकर
• दिन बिताने लगा। पर दैव को वह भी ठीक न जंचा !अच्छा,
जैसी उसकी इच्छा ! पर मै तुम्हारे परिवार को सदा स्नेह की दृष्टि से देखता हूँ। बाबू अमरनाथ के कहने-सुनने का मुझे कुछ ध्यान भी नही है, मै उसे आशीर्वाद समझता हूँ। मेरे चित्त में उसका तनिक भी ध्यान नहीं है, पर केवल पश्चात्ताप यह है कि मैं उनसे बिना कहे-सुने चला आया । अच्छा, इसके लिए उनसे क्षमा मांग लेना और भाई किशोरनाथ से भी मेरा यथोचित अभिवादन कह देना ।
_ अब कुछ आवश्यक बातें मै लिखता हूँ, उन्हें ध्यान से पढ़ो । जहां तक सम्भव है, उनके करने में तुम आगा-पीछा न करोगी---यह मुझे विश्वास है । मुझे तुम्हारे परिवार की दशा अच्छी तरह विदित है,मैं उसे लिखकर तुमहारा दुःख नही बढाना चाहता। सुनो, यह एक 'बिल' है जिसमें मैने अपनी सब सीलोन की सम्पति तुम्हारे नाम लिख दी है । वह तुम्हारी ही है, उसे लेने में तुमको कुछ संकोच न करना चाहिये । वह सब तुम्हारे ही रुपये का लाभ है । जो धन मै वेतन में पाता था, वही मूल कारण है।अस्तु, यह मूलधन, लाभ और व्याज-सहित, तुमको लौटा दिया जाता है । इसे अवश्य स्वीकार करना, और स्वीकार करो या न करो,अब सिवा तुम्हारे इसका स्वामी कौन है ?क्योंकि मैं भारतवर्ष से जिस रूप में आया था, उसी रूप में लौटा जा रहा हूँ। मै इस पत्र को लिखकर तब भेजता हूँ, जब घर से निकलकर जहाज को रवाना हो चुका हूँ। अब तुमसे भेंट भी नहीं हो सकती। तुम यदि आओ भी,तो उस समय मै जहाज पर होऊँगा । तुमसे मेरी केवल यही प्रार्थना है कि 'तुम मुझे भूल जाना'। ---मदन
यह पत्र पढ़ते ही मृणालिनी की और किशोरनाथ की अवस्था
दूसरी ही हो गयी। मृणालिनी ने कातर स्वर से कहा---भैया,क्या