हमारो हिरदय कुलिसहु जीत्यो।
फटत न सखी अजहुं उहि आसा बरिस दिवस पर बीत्यो ॥
हमहूं समुझि पर्यो नीके करि यह आसा तनु रीत्यो ।
'सूरस्याम' दासी सुख सोवहु भयउ उभय मन चीत्यो ।
सौसन के चेहरे पर गाने का भाव एकबारगी अरुणिमा में प्रगट हो गया। रामप्रसाद ने ऐसे करण स्वर से इस पद को गाया कि दोनों मुग्ध हो गये।
सरदार ने देखा कि मेरी जीत हुई । प्रसन्न होकर बोल उठा--रामप्रसाद, जो इच्छा हो, मांग लो।
यह सुनकर सरदार-पत्नी के यहां से एक बांदी आई और सौसन से बोली--बेगम ने कहा है कि तुम्हें भी जो मांगना हो, हमसे मांग लो।
रामप्रसाद ने थोड़ी देर तक कुछ न कहा । जब दसरी बार सरदार ने मांगने को कहा, तब उसका चेहरा कुछ अस्वाभाविक सा हो उठा । वह विक्षिप्त स्वर से बोल उठा--यदि आप अपनी बात पर दृढ़ हो, तो 'सौसन' को मुझे दे दीजिये।
उसी समय सौसन भी उस बांदी से बोली--बेगम साहिबा यदि कुछ मुझे देना चाहें, तो अपने दासीपन से मुझे मुक्त कर दें।
बांदी भीतर चली गई। सरदार चुप रह गये। बादी फिर आई और बोली--बेगम ने तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार की और यह हार दिया है।
इतना कहकर उसने एक जड़ाऊ हार सौसन को पहना दिया।
सरदार ने कहा--रामप्रसाद, आज से तुम 'तानसेन' हुए ।
यह सौसन भी तुम्हारी हुई, लेकिन धरम से इसके साथ ब्याह करो।
तानसेन ने कहा--आज से हमारा धर्म 'प्रेम' है।