मदन भी अपनी नाव पर बैठा हुआ एकटक इस उत्सव को देख
रहा है। उसकी आंखें जैसे किसी को खोज रही है। धीरे-धीरे सन्ध्या हो गयी। क्रमशः एक, दो, तीन तारे दिखाई दिये। साथ ही, पूर्व की तरफ, ऊपर को उठते हुए गुब्बारे की तरह चन्द्रबिम्ब दिखाई पड़ा ।लोगों के नेत्रों में आनन्द का उल्लास छा गया। इधर दीपक जल गये। मधुर संगीत, शून्य की निस्तब्धता में, और भी गूजने लगा।रात के साथ ही आमोद-प्रमोद की मात्रा बढ़ी।
परन्तु मदन के हृदय में सन्नाटा छाया हुआ है। उत्सव के बाहर वह अपनी नौका को धीरे-धीरे चला रहा है। अकस्मात् कोलाहल सुनाई पड़ा, वह चौंककर उधर देखने लगा। उसी समय कोई चार-पांच हाथ दूर एक काली-सी चीज दिखाई दी । अस्त हो रहे चन्द्रमा का प्रकाश पड़ने से कुछ वस्त्र भी दिखाई देने लगा।वह बिना कुछ सोचे-समझे ही जल में कूद पड़ा और उसी वस्तु के साथ बह चला।
ऊषा की आभा पूर्व में दिखाई पड़ रही है । चन्द्रमा की मलिन ज्योति तारागण को भी मलिन कर रही है।
तरंगों से शीतल दक्षिण-पवन धीरे-धीरे संसार को निन्द्रा से जगा रहा है । पक्षी भी कभी-कभी बोल उठते है।
निर्जन नदी-तट में एक नाव बंधी है, और बाहर एक सुकुमारी सुन्दरी का शरीर अचेत अवस्था में पड़ा हुआ है । एक युवक सामने बैठा हुआ उसे होश में लाने का उद्योग कर रहा है।दक्षिण-पवन भी उसे इस शुभ काम में बहुत सहायता दे रहा है।
सूर्य की पहली किरण का स्पर्श पाते ही सुन्दरी के नेत्र-कमल धीरे-धीरे विकसित होने लगे। युवक ने ईश्वर को धन्यवाद दिया और झुककर उस कामिनी से पूछा--मृणालिनी ! अब कैसी हो?
मृणालिनी ने नेत्र खोलकर देखा । उसके मुख-मण्डल पर हर्ष