और न सुना है, फिर कैसे यह ब्याह करूँ ?
इन्हीं बातों को सोचते-सोचते बहुत देर हो गयी। जब मदन को यह सुन पड़ा कि 'अच्छा, सोचकर हमसे कहना,' तब वह चौक पड़ा और देखा तो किशोरनाथ जा रहा है।
मदन ने किशोरनाथ के जाने पर कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया और फिर अपने विचारों के सागर में मग्न हो गया।
फिर मृणालिनी का ध्यान आया, हृदय धड़कने लगा। मदन की चिन्ता-शक्ति का वेग रुक गया और उसके मन में यही समाया कि ऐसे धर्म को मै दूर ही से हाथ जोड़ता हूँ ! मणालिनी-प्रेमप्रतिमा मृणालिनी---को मै नहीं छोड़ सकता।
मदन इसी मन्तव्य को स्थिर कर, समुद्र की ओर मुख कर,उसकी गम्भीरता निहारने लगा।
वहां पर कुछ धनी लोग पैसा फेककर उसे समुद्र से ले आने का
तमाशा देख रहे थे । मदन ने सोचा कि प्रेमियो का जीवन 'प्रेम'
है और सज्जनों का अमोध धन 'धर्म' है। ये लोग अपने प्रेम-
जीवन की परर्वाह न कर धर्म-धन को बटोरते है और फिर इनके
पास जीवन और धन दोनों चीजें दिखाई पड़ती है। तो क्या मनुष्य
इनका अनुकरण नहीं कर सकता? अवश्य कर सकता है। प्रेम ऐसी तुच्छ वस्तु नही है कि धर्म को हटाकर उसके स्थान पर आप
बैठे । प्रेम महान है, प्रेम उदार है। प्रेमियों को भी वह उदार और महान बनाता है। प्रेम का मुख्य अर्थ है 'आत्मत्याग' । तो क्या मृणालिनी से ब्याह कर लेना ही प्रेम में गिना जायगा? नहीं-नही,वह घोर स्वार्थ है। मणालिनी को मै जन्म-भर प्रेम से अपने हृदय-मन्दिर में बिठाकर पूजूंगा, उसकी सरल प्रतिमा को पंक में न लपेटूंगा । परन्तु ये लोग जैसा बर्ताव करते है, उससे सम्भव है कि मेरे विचार पलट जायें । इसलिए अब इन लोगों से दूर रहना ही उचित है।