बना दिया । वह सोचने लगा कि मेरा क्या परिणाम होगा,क्या मुझे भी चलने के लिये आज्ञा देंगे ? और, यदि ये चलने के लिए कहेंगे, तो मैं क्या करूँगा? इनके साथ जाना ठीक होगा या
नहीं ?
इन सब बातों को वह सोचता ही था कि इतने में किशोरनाथ ने अकस्मात् आकर उसे चौंका दिया। उसने खड़े होकर पूछा--- कहिये, आप लोग किस सोच-विचार में पड़े हुए है ? कहां जाने का विचार है ?
क्यों, क्या तुम न चलोगे ?
कहां ?
जहां हम लोग जायें ।
वही तो पूछता हूँ कि आप लोग कहां जायँगे ?
सीलोन। तो मुझसे भी आप वहां चलने के लिये कहने है ?
इसमे तुम्हारी हानि ही क्या है ?
(यज्ञोपवीत दिखाकर) इसको ओर भी तो ध्यान कीजिये !
तो क्या समुद्रयात्रा तुम नहीं कर सकते।
सुना है कि वहाँ जाने से धर्म नष्ट हो जाता है !
क्यों ? जिस तरह तुम यहां भोजन बनाते हो, उसी तरह वहां भी बनाना।
जहाज पर भी तो चढ़ना होगा!
उसमें हर्ज ही क्या है ? लोग गंगासागर और जगन्नाथजी जाते समय जहाज पर नहीं चढ़ते ?
मदन अब निरुत्तर हुआ, किन्तु उत्तर सोचने लगा। इतने ही में उधर से मृणालिनी आती हुई दिखाई पड़ी । मृणालिनी को देखते ही उसके विचार-रूपी मोतियों को प्रेम-हंस ने चुग लिया, और उसे उसकी बुद्धि और भी भम्रपूर्ण जान पड़ने लगी।
मृणालिनी ने पूछा---क्यों मदन,तूम बाबा के साथ न चलोगे ?