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तानसेन
 


अभिवादन किया। एक ने बढ़कर घोड़ा थाम लिया । अब दोनों ने बड़े दालानों और अमराइयों को पार करके एक छोटे-से पाई-बाग में प्रवेश किया।

रामप्रसाद चकित था, उसे यह नही ज्ञात होता था कि वह किसके संग कहां जा रहा है । हां, यह उसे अवश्य प्रतीत हो गया कि यह पथिक इस दुर्ग का कोई प्रधान पुरुष है ।

पाई-बाग मे बीचोबीच एक चबूतरा था, जो सगमरमर का बना था । छोटी-छोटी सीढ़ियां चढ़कर दोनों उसपर पहुचे । थोड़ी देर में एक दासी पानदान और दूसरी वारुणी की बोतल लिये हुए आ पहुंची।

पथिक, जिसे अब हम पथिक न कहेंगे, ग्वालियर-दुर्ग का किले- दार था, मुगल-सम्राट अकबर के सरदारों में से था। बिछे हुए पारसी कालीन पर मसनद के सहारे वह बैठ गया। दोनों दासियां फिर एक हुक्का ले आई, और उसे रखकर मसनद के पीछे खड़ी होकर,चंवर करने लगीं। एक ने रामप्रसाद की ओर बहुत बचाकर देखा।

युवक सरदार ने थोड़ी-सी वारुणी ली। दो-चार गिलौरी पान की खाकर फिर वह हुक्का खींचने लगा। रामप्रसाद क्या करें; बैठे-बैठे सरदार का मुंह देख रहे थे । सरदार के ईरानी चेहरे पर वारुणी ने वानिश का काम किया । उसका चेहरा चमक उठा। उत्साह से भरकर उसने कहा--रामप्रसाद, कुछ गावो । यह उस दासी की ओर देख रहे थे।

रामप्रसाद, सरदार के साथ बहुत मिल गया । उसे अब कही भी रोक-टोक नहीं है । उसी पाई-बाग में उसके रहने की जगह