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चोखे चौपदे


सब दयावान ही नहीं होते।
औ सभी हो सके कभी न भले॥
सैकड़ों ही कठोर हाथों से।
फूल से कठ पर कुठार चले॥

बात मुॅह से तब निकल कैसे सके।
जब सती का हाथ लोहू मे सने॥
फूट पाये कठ तब कैसे भला।
कठ-माला कठमाला जब बने॥

क्यों हुनर दिखला न मन को मोह लें।
दूसरों के रूप गुन पर क्यों जलें॥
कोयले से रग पर ही मस्त रह।
हैं निराला राग गातीं कोयलें॥

पा सहारा जाति के ही पाँव का।
जाति का है पाँव जम कर बैठता॥
जाति ही है जाति की जड़ खोदती।
हाथ ही है हाथ को तो ऐंठता॥