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चोखे चौपदे
है लुनाई फिसल रही जिस पर।
है उसे काम क्या कि कुछ पहने॥
गोल सुथरे सुडौल गालों के।
बन गये रूप रग ही गहने॥
कुछ बड़ों से हो न, पर कितनी जगह।
काम करता है बड़ों का मेल ही॥
पत बचाती है उसी की चिक नई।
माल का तिल क्यों न हो बेतेल ही॥
सब जगह बात रह नहीं सकती।
बात का बॉध दें भले हो पुल॥
हम रहे क्यों न गुलगुले खाते।
रह सका गाल कब सदा गुलगुल॥
जो कि सुख के बने रहे कीड़े।
वे पड़े देख दुख उठाते भी॥
जो उठें तो उठें सँभल करके।
हैं उठे गाल बैठ जाते भी॥