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केसर की क्यारी
जब जगह रह गई नही जी में।
तब भला क्यों न जी फिरा पाते॥
जब बचा रह गया न अपनापन।
ऑख कैसे न तब, बचा जाते॥
जो बहुत से भेद जी के थे छिपे।
आँख से ही लग गये उन के पते॥
क्या हुआ जी को अगर चोरी खुली।
जब रहे ऑखे चुरा कर देखते॥
क्या अजब जो ललक पड़े, उमगे।
खिल उठें, स्वांग सैकड़ों रच लें॥
मुॅह खिला देख प्यार-पुतलों का।
आँख की पुतलियां अगर मचलें॥
पक गया जो, नाक मे दम हो गया।
तुम न सुधरे, सिर पड़ी हम ने सही॥
हॅस रहे हो या नही हो हॅस रहे।
पर तुमारी आँख तो है हॅस रही॥