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केसर की क्यारी

भूल जावे कभी न अपनापन।
जान दे पर न मान को दे, खो ॥
लोग जिस आँख से तुम्हें देखे।
तुम उसी आँख से उन्हें देखो ॥

और को खोट देखती बेला।
टकटकी लोग बाँध देते है ॥
पर कसर देखते समय अपनी।
बेतरह आँख मूंद लेते है ॥

फिर कभी खुलने न पाई माँद वे।
इस तरह मन के मसोसों से दुई ॥
मूँदते ही मूंदते मुख और का।
मदभरी आँखे बहुत लो मुंद गई ॥

छोड़ संजीदगी सजे कूँचे।
बन गये जब लोहार की कूँची ॥
तो बचा रह सका न ऊँचापन ।
आँख भी रह सकी नही ऊँची ॥