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कोर कसर

जी की कचट

ब्योंत करते ही बरस बीते बहुत।
कर थके लाखों जतन जप जोग तप॥
सब दिनों काया बनी जिस से रहे।
हाथ आया वह नहीं काया कलप॥

किस तरह हम मरम कहें अपना।
कक न काँटे करम रहा बोता॥
तब रहे क्यों भरम धरम क्यों हो।
हाथ ही जब गरम नहीं होता॥

आज तक हम बने कहाँ वैसे।
बन गये लोग बन गये जैसे॥
जब न सरगरमियाँ मिलींं हम को।
कर सकेंं हाथ तब गरम कैसे॥