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चोखे चौपदे

भूल से बच कर भुलावों में फँसी।
काम धंधा छोड़ सतधधी रही॥
सूझ सकता है मगर सूझा नही।
बावली दुनिया न कब अधो रही॥

साँस पाते जब बुराई से नही।
लाभ क्या तब साँस को साँसत किये॥
जब दबाये से नही मन ही दबा।
नाक को तब है दबाते किस लिये॥

उन लयों लहरों सुरों के साथ भर।
रस अछूते प्रेम का जिन से बहे॥
कठ की घंटी बजी जिन की न वे।
कठ में क्या बाँधते ठाकुर रहे॥

रंग में जो प्रेम के डूबे नहीं।
जो न पर-हित की तरगों में बहे॥
किस लिये हरिनाम तो सह सॉसतें।
कंठ भर जल में खड़े जपते रहे॥