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अन्योक्ति
किस लिये यो बॅधी लकीरों पर।
हो बिना ही हिले डुले अड़ते॥
है सिधाई नही तिलक तुम मे।
जब कि हो काट छाँट मे पड़ते॥
हो तिलक तुम रूप रॅग रखते बहुत।
है तुमारा भेद पा सकते न हम॥
रॅग किसी बहुरूपिये के रग मे।
हो किसी बहुरूपिये से तुम न कम॥
आँख
सूर को क्या अगर उगे सूरज।
क्या उसे जाय चाँदनी जो खिल॥
हम अँधेरा तिलोक में पाते।
आँख होते अगर न तेरे तिल॥
क्या हुआ चौकड़ी अगर भूले।
लख उछल कूद और छल करना॥
है छकाता छलॉग वालों को।
ऑख तेरा छलौंग का भरना॥